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रविवार, 27 जून 2010

अयोध्या काण्ड -भाग 3

सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें।।
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें।।
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा।।
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए।।
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी।।
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।।
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई।।
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने।।
छं0-सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए।।
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे।।
दो0-सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।226।।

बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।।
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी।।
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू।।
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही।।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने।।
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू।।
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई।।
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी।।
दो0-नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान।।227।।

बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।।
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना।।
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई।।
कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी।।
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू।।
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई।।
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।।
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ।।
दो0-ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान।।228।।

सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू।।
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ।।
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई।।
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला।।
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी।।
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा।।
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें।।
दो0-छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।।229।।

उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा।।
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा।।
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ।।
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई।।
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू।।
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता।।
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई।।
दो0-अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान।।230।।

जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी।।
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा।।
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।।
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने।।
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई।।
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई।।
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा।।
दो0-भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ।।231।।

तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई।।
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी।।
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई।।
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना।।
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता।।
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा।।
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी।।
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ।।
दो0-सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु।।232।।

जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को।।
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा।।
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी।।
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए।।
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा।।
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई।।
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं।।
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ।।
दो0-मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर।।233।।

जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी।।
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही।।
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना।।
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता।।
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी।।
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ।।
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी।।
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू।।
दो0-लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु।।234।।

सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने।।
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू।।
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी।।
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी।।
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा।।
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू।।
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।।
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ।।
दो0-जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु।।235।।

बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे।।
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना।।
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा।।
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा।।
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं।।
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन।।
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा।।
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला।।
दो-राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु।।236।।
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई।।
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला।।
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा।।
नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला।।
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी।।
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई।।
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए।।
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई।।
दो0-जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान।।237।।

सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी।।
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई।।
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका।।
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं।।
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा।।
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला।।
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।।
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को।।
दो0-पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।238।।

सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।।
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा।।
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे।।
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें।।
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू।।
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा।।
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत।।
दो0-लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु।।239।।

सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन।।
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई।।
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने।।
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा।।
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई।।
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू।।
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा।।
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा।।
दो0-बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।।240।।

मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी।।
परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई।।
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई।।
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को।।
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती।।
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।।
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।।
दो0-मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम।।241।।

भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई।।
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे।।
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा।।
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए।।
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं।।
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।।
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा।।
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि।।
दो0-नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग।।242।।

सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू।।
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला।।
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे।।
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई।।
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू।।
रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।।
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।।
दो0-जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ।।243।।

आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना।।
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी।।
सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू।।
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।।
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा।।
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं।।
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई।।
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी।।
दो0-भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।244।।

गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई।।
गंग गौरि सम सब सनमानीं।।देहिं असीस मुदित मृदु बानी।।
गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका।।
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता।।
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए।।
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू।।
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ।।
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू।।
दो0-महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ।।
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ।।245।।

सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी।।
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता।।
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।।
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं।।
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं।।
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा।।
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा।।
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई।।
दो0-लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।।
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग।।246।।

बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं।।
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा।।
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी।।
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी।।
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू।।
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए।।
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा।।
दो0-भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह।।247।।

करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी।।
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला।।
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस।।
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते।।
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।।
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ।।
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई।।
दो0-धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम।।248।।

राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू।।
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला।।
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं।।
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि।।
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं।।
झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी।।
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती।।
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।
दो0-सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग।।249।।

कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी।।
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी।।
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा।।
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं।।
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी।।
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा।।
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा।।
दो0-यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु।।250।।

तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।।
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई।।
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई।।
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती।।
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं।।
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ।।
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे।।
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे।।
छं0-लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं।।
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा।।
सो0-बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम।।251।।
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती।।
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई।।
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ।।
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं।।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई।।
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई।।
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं।।
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं।।
दो0-निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच।।252।।

कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली।।
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू।।
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी।।
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ।।
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता।।
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू।।
एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी।।
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई।।
दो0-गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ।।253।।

बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना।।
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू।।
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।।
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी।।
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु।।
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला।।
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई।।
करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें।।
दो0-राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ।।254।।

सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू।।
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ।।
सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी।।
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे।।
भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे।।
जनमु हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता।।
दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना।।
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी।।
दो0-बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु।।255।।
–*–*–
तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं।।
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता।।
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई।।
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता।।
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा।।
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी।।
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे।।
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू।।
दो0-अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान।।256।।

भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू।।
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी।।
गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा।।
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई।।
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए।।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु।।
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी।।
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना।।
दो0-सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ।।257।।

आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ।।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ।।
सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें।।
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई।।
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ।।
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा।।
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी।।
मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।
दो0-भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।258।।

गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी।।
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी।।
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी।।
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू।।
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।
दो0-तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात।।259।।

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई।।
लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू।।
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही।।
दो0-महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।260।।

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।
दो0-साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।261।।

भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ।।
बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।
दो0-तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।262।।

सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी।।
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू।।
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी।।
बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू।।
तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी।।
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे।।
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई।।
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई।।
दो0-मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।263।।

कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।।
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ।।
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।।
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें।।
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू।।
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा।।
दो0-मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।264।।

सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू।।
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं।।
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।
सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा।।
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा।।
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा।।
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि।।
दो0-सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु।।265।।

सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई।।
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई।।
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ।।
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं।।
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू।।
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना।।
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका।।
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा।।
दो0-कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ।।266।।

कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी।।
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला।।
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें।।
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई।।
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला।।
यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई।।
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं।।
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।
दो0-जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच।।267।।

लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू।।
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई।।
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची।।
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई।।
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका।।
यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु।।
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी।।
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना।।
दो0-सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ।।268।।

नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई।।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई।।
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु।।
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू।।
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई।।
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू।।
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा।।
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ।।
दो0-प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।269।।

भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।
असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी।।
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची।।
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए।।
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे।।
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता।।
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा।।
बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं।।
दो0-नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ।।270।।

कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा।।
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू।।
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि।।
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू।।
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू।।
समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ।।
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी।।
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ।।
दो0-गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति।।271।।

दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी।।
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति।।
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई।।
घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे।।
दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला।।
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा।।
खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा।।
साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे।।
दो0-सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु।।272।।

गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई।।
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी।।
एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ।।
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी।।
रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी।।
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी।।
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा।।
एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू।।
दो0-गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ।।273।।

सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी।।
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन।।
ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी।।
सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं।।
लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी।।
सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ।।
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे।।
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे।।
दो0-प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु।।274।।

भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा।।
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं।।
राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू।।
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही।।
आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती।।
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे।।
लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन।।
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि।।
दो0-आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु।।275।।

बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे।।
सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा।।
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा।।
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा।।
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे।।
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई।।
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा।।
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही।।
छं0-अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा।।
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की।।
सो0-किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन।।276।।
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा।।
तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई।।
बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने।।
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू।।
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू।।
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए।।
सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी।।
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू।।
दो0-दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात।।277।।

जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी।।
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा।।
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका।।
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं।।
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ।।
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई।।
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू।।
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना।।
दो0-तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार।।278।।

कामद मे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा।।
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा।।
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला।।
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू।।
जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई।।
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई।।
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे।।
दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना।।
दो0-सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार।।279।।

एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी।।
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं।।
सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू।।
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही।।
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही।।
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला।।
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल।।
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता।।
दो0-एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु।।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु।।280।।

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं।।
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं।।
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू।।
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी।।
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा।।
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन।।
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति।।
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी।।
दो0-सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।।281।।

सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा।।
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी।।
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू।।
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता।।
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें।।
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी।।
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी।।
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी।।
दो0-लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु।।282।।

ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी।।
राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ।।
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई।।
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे।।
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा।।
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा।।
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी।।
दो0-कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि।।283।।

रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई।।
रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन।।
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी।।
गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं।।
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी।।
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि।।
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ।।
देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती।।
दो0-बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय।।284।।

लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता।।
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी।।
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं।।
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी।।
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै।।
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू।।
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल।।
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा।।
दो0-अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ।।285।।

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही।।
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी।।
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई।।
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की।।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू।।
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा।।
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु।।
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की।।
दो0-सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि।।286।।

तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी।।
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी।।
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे।।
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी।।
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई।।
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं।।
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ।।
दो0-बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि।।287।।

सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू।।
मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन।।
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि।।
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू।।
सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही।।
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद।।
भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती।।
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू।।
दो0-निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि।।288।।

अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी।।
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी।।
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ।।
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं।।
देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी।।
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की।।
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे।।
साधन सिद्ध राम पग नेहू।।मोहि लखि परत भरत मत एहू।।
दो0-भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ।।289।।

राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती।।
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे।।
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई।।
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी।।
सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू।।
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा।।
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ।।
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा।।
दो0-प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम।।290।।

सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ।।
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम पेम परधानू।।
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं।।
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें।।
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ।।
करि प्रनाम तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए।।
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए।।
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई।
दो0-ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल।।291।।

सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे।।
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाही।।
रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना।।
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई।।
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी।।
समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा।।
भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे।।
तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ।।
दो0-राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु।।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु।।292।।

सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी।।
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू।।
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू।।
सिसु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी।।
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर।।
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता।।
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना।।
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू।।
दो0-राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि।।293।।

भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ।।
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे।।
ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी।।
भूप भरत मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू।।
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा।।
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी।।
राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे।।
सब कोउ राम पेममय पेखा। भउ अलेख सोच बस लेखा।।
दो0-रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु।।294।।

सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही।।
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया।।
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी।।
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू।।
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी।।
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी।।
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू।।
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका।।
दो0-सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु।।
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु।।295।।

करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू।।
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा।।
समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा।।
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई।।
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू।।
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी।।
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू।।
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई।।
दो0-राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत।।296।।

सभा सकुच बस भरत निहारी। रामबंधु धरि धीरजु भारी।।
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा।।
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी।।
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला।।
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे।।
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा।।
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई।।
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली।।
दो0-निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु।।297।।

प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अतंरजामी।।
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू।।
समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी।।
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई। मोहि समान मैं साइँ दोहाई।।
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली।।
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू।।
राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं।।
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई।।
दो0-कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर।।298।।

राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई।।
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी।।
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए।।
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने।।
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी।।
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें।।
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी।।
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना।।
दो0-यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर।।299।।

सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ।।
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा।।
देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।।
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू।।
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई।।
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं।।
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई।।
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी।।
दो0-सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि।।300।।

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