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शनिवार, 26 जून 2010

बाल कांड -- भाग 3

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा।।
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा।।
भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा।।
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू।।
नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना।।
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे।।
कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका।।
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी।।
दो0-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप।।176।।
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कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई।।
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता।।
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा।।
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें।।
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा।।
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ।।
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू।।
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी।।
दो0-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु।।177।।
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तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए।।
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा।।
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी।।
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई।।
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी।।
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा।।
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा।।
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका।।
दो0-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव।।178(क)।।
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ।।178(ख)।।
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रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे।।
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे।।
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई।।
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई।।
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा।।
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी।।
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे।।
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा।।
दो0-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ।।179।।
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सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई।।
नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई।।
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता।।
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा।।
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई।।
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना।।
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू।।
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई।।
दो0-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय।।180।।
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कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया।।
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा।।
सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती।।
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी।।
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा।।
ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई।।
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई।।
द्विजभोजन मख होम सराधा।।सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा।।
दो0-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ।।181।।
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मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा।।
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना।।
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी।।
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही।।
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी।।
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा।।
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए।।
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी।।
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा।।
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी।।
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा।।
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी।।
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता।।
दो0-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र।।182(ख)।।
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि।।182ख।।
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इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ।।
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा।।
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी।।
करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया।।
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।।
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई।।
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना।।
छं0-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा।।
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना।।
सो0-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति।।183।।
मासपारायण, छठा विश्राम
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।।
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी।।
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी।।
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।।
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता।।
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी।।
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई।।
छं0-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका।।
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई।।
सो0-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति।।184।।
बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा।।
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई।।
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती।।
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ।।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।।
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।।
मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना।।
दो0-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर।।185।।
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छं0-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता।।
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई।।
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा।।
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा।।
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा।।
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा।।
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना।।
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा।।
दो0-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह।।186।।
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जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा।।
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा।।
कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा।।
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा।।
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई।।
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ।।
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई।।
गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना।।
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा।।
दो0-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ।।187।।
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गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा।।
बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं।।
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा।।
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी।।
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा।।
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ।।
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी।।
दो0-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत।।188।।
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एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं।।
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला।।
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ।।
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी।।
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा।।
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें।।
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा।।
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई।।
दो0-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।।
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ।।189।।
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तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई।।
अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा।।
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ।।
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि।।
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी।।
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए।।
मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं।।
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ।।
दो0-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल।।190।।
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नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।।
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा।।
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।।
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा।।
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना।।
गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा।।
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी।।
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा।।
दो0-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम।।191।।
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छं0-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता।।
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता।।
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै।।
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा।।
दो0-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।।192।।
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सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब रानी।।
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी।।
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना।।
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा।।
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई।।
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा।।
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा।।
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई।।
दो0-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह।।193।।
*****
ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा।।
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई।।
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि धाई।।
कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा।।
करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं।।
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक।।
सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू।।
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा।।
दो0-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद।।194।।
*****
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ।।
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा।।
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती।।
देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी।।
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी।।
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा।।
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी।।
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना।।
दो0-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ।।195।।
*****
यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना।।
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा।।
औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी।।
काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।
परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले।।
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई।।
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा।।
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा।।
दो0-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस।।196।।
*****
कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती।।
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी।।
करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा।।
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा।।
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।।
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।।
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।।
दो0-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार।।197।।
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धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी।।
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना।।
बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी।।
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई।।
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा।।
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा।।
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना।।
दो0-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद।।198।।
*****
काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा।।
अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती।।
रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे।।
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा।।
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी।।
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा।।
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई।।
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे।।
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला।।
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे।।
पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई।।
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा।।
दो0-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत।।199।।
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एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता।।
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी।।
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी।।
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे।।
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही।।
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई।।
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा।।
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै।।
दो0-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।200।।
*****
एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए।।
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।।
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा।।
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई।।
गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता।।
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई।।
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा।।
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।
दो0-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड।। 201।।
*****
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।।
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ।।
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।।
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही।।
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा।।
बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी।।
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना।।
हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई।।
दो0-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि।। 202।।
*****
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा।।
कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई।।
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई।।
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा।।
मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई।।
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा।।
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई।।
निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा।।
धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए।।
दो0-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ।।203।।
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बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए।।
जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता।।
भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता।।
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई।।
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी।।
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला।।
करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा।।
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई।।
दो0- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल।।204।।
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बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई।।
पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी।।
जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे।।
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं।।
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा।।
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई।।
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा।।
दो0-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप।।205।।
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यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई।।
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी।।
जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं।।
देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं।।
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी।।
तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा।।
एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई।।
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना।।
दो0-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार।।206।।
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मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा।।
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी।।
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा।।
पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी।।
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा।।
तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।।
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।
असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही।।
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।
दो0-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान।।207।।
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सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी।।
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी।।
मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा।।
देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही।।
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई।।
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा।।
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी।।
तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा।।
अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए।।
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ।।
दो0-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस।।208(क)।।
सो0-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन।।208(ख)
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अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला।।
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई।।
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना।।
चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही।।
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।
दो0-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि।।209।।
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प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई।।
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी।।
सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही।।
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा।।
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा।।
मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी।।
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया।।
भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना।।
तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई।।
धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।
दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर।।210।।
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छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही।।
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई।।
मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई।।
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना।।
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।।
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी।।
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।।
दो0-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल।।211।।
मासपारायण, सातवाँ विश्राम
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चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा।।
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई।।
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए।।
हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया।।
पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी।।
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना।।
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा।।
बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता।।
दो0-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास।।212।।
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बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई।।
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी।।
धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना।।
चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई।।
मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें।।
पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता।।
अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू।।
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी।।
दो0-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति।।213।।
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सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा।।
बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला।।
सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे।।
पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा।।
देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना।।
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता।।
बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए।।
दो0-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति।।214।।
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कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा।।
बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे।।
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा।।
तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई।।
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा।।
उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए।।
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता।।
मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी।।
दो0-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर।।215।।
*****
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक।।
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा।।
सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा।।
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ।।
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका।।
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी।।
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए।।
दो0-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम।।216।।
*****
मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ।।
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता।।
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि।।
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू।।
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू।।
म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू।।
सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला।।
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई।।
दो0-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु।।217।।
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लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी।।
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं।।
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी।।
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई।।
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।।
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ।।
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती।।
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता।।
दो0-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ।।218।।
मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
*****
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता।।
बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा।।
पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा।।
तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी।।
केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला।।
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन।।
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं।।
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी।।
दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस।।219।।
*****
देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए।।
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी।।
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई।।
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं।।
कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।।
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं।।
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी।।
अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही।।
दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम।।220।।
*****
कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी।।
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी।।
ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा।।
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे।।
स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन।।
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी।।
गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें।।
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता।।
दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि।।221।।
*****
देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई।।
जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू।।
कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने।।
सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई।।
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता।।
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू।।
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू।।
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें।।
दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि।।222।।
*****
बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का।।
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा।।
सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी।।
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं।।
परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी।।
सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें।।
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी।।
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी।।
दो0-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद।।223।।
*****
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई।।
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी।।
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला।।
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा।।
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई।।
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए।।
जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी।।
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना।।
दो0-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात।।224।।
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सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने।।
निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई।।
राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना।।
लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया।।
भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला।।
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं।।
जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई।।
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई।।
दो0-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।225।।
*****
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा।।
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी।।
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते।।
बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।
चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ।।
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता।।
दो0-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।।226।।
*****
सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए।।
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई।।
भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई।।
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना।।
नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए।।
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा।।
मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा।।
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा।।
दो0-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत।।227।।
*****
चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन।।
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई।।
संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी।।
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा।।
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता।।
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा।।
एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई।।
तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई।।
दो0-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन।।228।।
*****
देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए।।
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।
सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी।।
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली।।
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी।।
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।
तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने।।
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई।।
दो0-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत।।229।।
*****
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।।
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही।।मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही।।
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा।।
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल।।
देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा।।
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई।।
सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई।।
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी।।
दो0-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि।।230।।
*****
तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई।।
पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई।।
जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा।।
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।।
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी।।
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी।।
मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं।।
दो0-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान।।231।।
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चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता।।
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।।
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।।
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।
थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें।।
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी।।
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी।।
दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ।।232।।
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सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा।।
मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के।।
भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए।।
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे।।
चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला।।
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं।।
उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा।।
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना।।
दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।233।।
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धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।।
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू।।
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।।
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा।।
परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता।।
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली।।
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी।।
धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने।।
दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि।। 234।।
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जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति।।
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी।।
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही।।
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी।।
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।
जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।235।।
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सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।
छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।
सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।236।।
हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई।।
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।।
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी।।
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई।।
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा।।
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।
दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक।।237।।
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घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।।
कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही।।
बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे।।
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी।।
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा।।
बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे।।
उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता।।
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी।।
दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन।।238।।
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नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी।।
कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना।।
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे।।
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा।।
रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।।
तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।।
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने।।
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए।।
सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए।।
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई।।
दो0-सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ।।239।।
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सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।।
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई।।
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी।।
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला।।
रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।।
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी।।
देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी।।
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू।।
दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि।।240।।
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राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।
राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे।।
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।।
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई।।
दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप।।241।।
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बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें।।
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।।
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।।
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ।।
दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर।।242।।
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सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ।।
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के।।
चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी।।
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।।
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा।।
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।।
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं।।
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ।।
दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल।।243।।
*****
कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे।।
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए।।
देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे।।
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई।।
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ।।
निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा।।
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ।।
दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल।।244।।
*****
प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे।।
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं।।
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला।।
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई।।
बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी।।
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा।।
एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ।।
यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने।।
सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे।।245।।
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।।
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता।।
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी।।
सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी।।
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई।।
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा।।
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे।।
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना।।
दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं।।246।।
*****
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी।।
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।
जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई।।
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।
दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल।।247।।
*****
चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी।।
सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी।।
भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए।।
रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी।।
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई।।
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला।।
सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा।।
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।
दो0-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि।।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि।।248।।
*****
राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें।।
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।।
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई।।
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू।।
जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू।।
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू।।
तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए।।
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा।।
दो0-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल।।249।।
*****
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू।।
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे।।
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा।।
त्रिभुवन जय समेत बैदेही।।बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही।।
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे।।
परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई।।
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं।।
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं।।
दो0-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।250।।
*****
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।
डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी।।
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी।।
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा।।
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने।।
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना।।
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा।।
दो0-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय।।251।।
*****
कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा।।
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई।।
अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी।।
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू।।
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ।।
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।
जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी।।
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें।।
दो0-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान।।252।।
*****
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी।।
सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।।
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।।
काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना।।
नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ।।
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं।।
दो0-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ।।253।।
*****
लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।।
सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने।।
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।।
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे।।
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।
दो0-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग।।254।।
*****
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।।
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने।।
भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा।।
गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा।।
सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।।
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी।।
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे।।
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं।।
दो0-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ।।255।।
*****
सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे।।
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।।
रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।।
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं।।
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी।।
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी।।
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।।
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा।।
दो0-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब।।256।।
*****
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे।।
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु सुनु रानी।।
सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।।
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही।।
मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई।।
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा।।
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।।
दो0-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर।।257।।
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नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।।
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।
अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं।।
दो0-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल।।258।।
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गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना।।
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी।।
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू।।
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।।
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे।।
दो0-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु।।259।।
*****
दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला।।
रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।
चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।।
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू।।
भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई।।
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।
संभुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई।।
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू।।
दो0-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि।।260।।
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देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।।
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
छं0-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।।
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही।।
सो0-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस।।261।।
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे।।
कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन।।
रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी।।
बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना।।
ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा।।
बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला।।
रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी।।
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी।।
दो0-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर।।262।।
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झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई।।
बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए।।
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी।।
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई।।
श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे।।
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती।।
रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें।।
सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा।।
दो0-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार।।263।।
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सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें।।
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई।।
तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू।।
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी।।
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई।।
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।।
सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला।।
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली।।
सो0-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन।।264।।
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे।।
सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा।।
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं।।
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं।।
महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा।।
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी।।
सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी।।
सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता।।
दो0-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि।।265।।
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तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे।।
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे।।
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ।।
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई।।
जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई।।
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी।।
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई।।
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई।।
दो0-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु।।266।।
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बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू।।
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही।।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई।।
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा।।
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी।।
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं।।
रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया।।
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं।।
दो0-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप।।267।।
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खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं।।
तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा।।
देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने।।
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा।।
सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा।।
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते।।
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला।।
कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें।।
दो0-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप।।268।।
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देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला।।
पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा।।
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी।।
जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा।।
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं।।
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई।।
रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा।।
रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन।।
दो0-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।।
पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर।।269।।
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समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए।।
सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे।।
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।।
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू।।
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं।।
सुर मुनि नाग नगर नर नारी।।सोचहिं सकल त्रास उर भारी।।
मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी।।
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता।।
दो0-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।270।।
मासपारायण, नवाँ विश्राम
*****
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।।
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने।।
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।
दो0-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार।।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।271।।
*****
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।
दो0-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।272।।
*****
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई।।
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।
दो0-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर।।273।।
*****
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
दो0-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।274।।
*****
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।।
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें।।
दो0-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।275।।
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