पृष्ठ

रविवार, 27 जून 2010

अयोध्या काण्ड -भाग 2

कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई।।
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी।।
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू।।
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा।।
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई।।
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू।।
गुर के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु।।
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी।।
छं0-सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए।
लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए।।
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की।।
सो0-भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि।।176।।
मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का।।
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा।।
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।।
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू।।
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई।।
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें।।
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू।।
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू।।
दो0-पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु।।177।।

हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई।।
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं।।
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें।।
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू।।
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा।।
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई।।
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू।।
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू।।
दो0-कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज।।178।।

कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू।।
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं।।
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू।।
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा।।
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू।।
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू।।
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे।।
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई।।
दो0-कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर।।179।।

कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे।।
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा।।
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू।।
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू।।
एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका।।
कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं।।
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई।।
दो0-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।।180।।

कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।।
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई।।
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका।।
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही।।
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई।।
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं।।
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू।।
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू।।
दो0-राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि।।181।

गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।।
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ।।
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं।।
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी।।
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू।।
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी।।
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा।।
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी।।
दो0-आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ।।182।।

आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा।।
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं।।
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी।।
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा।।
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी।।
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी।।
दो0-जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस।।183।।

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे।।
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।
दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।184।।

भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।।
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के।।
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई।।
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं।।
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू।।
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।
दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।185।।

घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना।।
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू।।
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही।।
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई।।
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।।
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले।।
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा।।
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।
दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान।।186।।

चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी।।
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना।।
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू।।
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे।।
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ।।
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना।।
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना।।
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी।।
दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।187।।

राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी।।
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।188।।

सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा।।
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा।।
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।।
दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु।।189।।

होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा।।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।।
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा।।
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू।।
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी।।
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें।।
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा।।
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू।।
दो0-बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु।।190।।

बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ।।
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा।।
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी।।
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं।।
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं।।
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े।।
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई।।
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने।।
दो0-भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि।।191।।

राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे।।
जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं।।
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा।।
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।
दो0-गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ।।192।।

लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ।।
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे।।
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने।।
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू।।
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा।।
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।।
दो0-करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ।।193।।

भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती।।
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता।।
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।।
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा।।
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।।
दो0-स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात।।194।।

नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।।
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं।।
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।।
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।।
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी।।
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।
दो0-समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ।।195।।

कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें।।
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई।।
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं।।
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा।।
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी।।
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू।।
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई।।
दो0-सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ।।196।।

सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब।।
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू।।
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा।।
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू।।
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।।
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी।।
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।।
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू।।
दो0-एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ।।197।।

जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा।।
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई।।
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी।।
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई।।
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें।।
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ।।
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू।।
दो0-जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।198।।

कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई।।
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई।।
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे।।
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना।।
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही।।
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू।।
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।
दो0-पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि।।199।।

लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने।।
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे।।
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।।
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती।।
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर।।
पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता।।
बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।।
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा।।
दो0-सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान।।200।।

राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ।।
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती।।
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।।
धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।।
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी।।
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ।।
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू।।
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि।।
छं0-बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी।।
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ।।
सो0-अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन।।201।।
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा।।
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी।।
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।।
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं।।
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू।।
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि।।
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा।।
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं।।
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा।।
दो0-प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ।।202।।

कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं।।
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा।।
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू।।
गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए।।
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा।।
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए।।
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा।।
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी।।
दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग।।203।।

झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें।।
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू।।
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए।।
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने।।
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे।।
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू।।
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी।।
दो0-अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।204।।

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।।
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।।
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई।।
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें।।
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी।।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं।।
दो0-तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल।।205।।

प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।।
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा।।
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।।
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।।
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे।।
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।।
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू।।
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई।।
दो0-तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।206।।

यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई।।
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।।
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी।।
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू।।
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू।।
दो0-अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।207।।

सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना।।
यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।।
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।।
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती।।
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा।।
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें।।
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई।।
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू।।
दो0-तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु।।208।।

नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।।
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना।।
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।।
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू।।
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा।।
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।।
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी।।
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं।।
दो0-जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ।।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ।।209।।

कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा।।
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ।।।।
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ।।
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा।।
दो0-पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन।।210।।

मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू।।
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई।।
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।।
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू।।
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू।।
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए।।
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू।।
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही।।
दो0-अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात।।211।।

एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती।।
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं।।
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला।।
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु।।
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा।।
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ।।
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई।।
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी।।
दो0-करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु।।212।।

सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू।।
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी।।
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा।।
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए।।
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।।
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए।।
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता।।
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई।।
दो0-राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज।।213।।

रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी।।
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई।।
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।।
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना।।
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे।।
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें।।
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं।।
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही।।
दो0-बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह।।214।।

मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका।।
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी।।
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना।।
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से।।
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें।।
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।।
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा।।
दो0-संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार।।215।।
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा।।
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी।।
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें।।
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू।।
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।।
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी।।
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं।।
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला।।
दो0-किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात।।216।।

जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।।
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं।।
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता।।
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं।।
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू।।
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई।।
दो0-रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि।।217।।

बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने।।
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया।।
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।
दो0-मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु।।218।।

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा।।
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई।।
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।।
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।।
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।।
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई।।
दो0-राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।219।।

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी।।
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू।।
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी।।
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं।।
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा।।
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।।
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए।।
दो0-रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज।।220।।

जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू।।
रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी।।
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ।।
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई।।
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें।।
तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें।।
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा।।
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा।।
दो0-मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ।।221।।

कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं।।
बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली।।
बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा।।
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा।।
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी।।
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी।।
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू।।
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।
दो0-चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु।।222।।

भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।।
जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें।।
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं।।
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन।।
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी।।
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा।।
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा।।
दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।223।।

निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा।।
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा।।
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।।
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही।।
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं।।
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।।
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी।।
दो0-तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ।।224।।

मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू।।
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू।।
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं।।
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।।
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा।।
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू।।
दो0-भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु।।225।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें